Ret Mein Aakritiyaan

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Ret Mein Aakritiyaan

Number of Pages : 106
Published In : 2016
Available In : Hardbound
ISBN : 9789326350037
Author: Shriprakash Shukla

Overview

"रेत में आकृतियाँ युवा कवि श्रीप्रकाश शुक्ल के इस तीसरे कविता-संग्रह में संगृहीत कविताएँ रेत और नदी के बीच, दिक और काल के बीच तथा ठहराव और बहने के बीच देखने के नये सूत्र को प्रस्तावित करती हैं। वे हमारे देखने के ढंग को बदल देती हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल का यह संग्रह इस अर्थ में, विगत वर्षों में आये अनेक कविता-संग्रहों से कुछ अलग है कि यह सिर्फ रेत और जल के बिम्बों और रूपकों को ही केन्द्र में रखकर रची गयी कविताओं का संग्रह है। याने यहाँ धुरी एक है लेकिन उसकी छवियाँ अनेक हैं। याने रेत के ही नहीं जल के भी मन में अनेक संस्मरण हैं। यहाँ रेत नदी का अनुवाद नहीं, उसका विस्तार है। कहा जा सकता है कि रेत की आकृतियाँ नदी के अन्तरलोक का बाह्यïीकरण है और रेत के भीतर बहती नदी, रेत के बाह्यïीकरण का आभ्यन्तर है। नदी का तट जो एक विशाल कैनवस में परिणत हो गया है उसमें कलाकार के हाथों की छुअन को श्रीप्रकाश शुक्ल अदीठ नहीं करते, हालाँकि वह यह भी मानते हैं कि कलाकार के स्पर्श से अनेक आकृतियाँ $खुद-ब-$खुद उभरती चली आती हैं और ये आकृतियाँ कहीं-न-कहीं हमारी विस्मृति के विरुद्ध इस कैनवस को विस्तार देती हैं, जिसमें अनगिनत संस्कृतियों के स्वर की अनुगूँज मौजूद है। इन कविताओं की लय रेत में बनती-मिटती, हवा और नदी की लय के साथ जुड़ती-मुड़ती लहरों जैसी ही है। इनमें आये देशज शब्द और मुहावरे नदी और रेत की आकृतियों को उसके भूगोल से कभी विलग नहीं होने देते; लेकिन इन कविताओं में न रेत ठहरी हुई है, न नदी। रेत में भी एक गति है और नदी में भी। गति ही उनकी पहचान को परिभाषित करती है। श्रीप्रकाश शुक्ल की इन कविताओं को पढ़ते हुए हम कई बार नदियों, समुद्रों और उनके रेतीले तटों पर बनी आकृतियों के पास जाते हैं और वापस कविता के पास आते हैं। आवाजाही की इस सतत प्रक्रिया के बीच ये कविताएँ स्मृतियों के साथ एक पुल बनाने का काम करती हैं। "

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"रेत में आकृतियाँ युवा कवि श्रीप्रकाश शुक्ल के इस तीसरे कविता-संग्रह में संगृहीत कविताएँ रेत और नदी के बीच, दिक और काल के बीच तथा ठहराव और बहने के बीच देखने के नये सूत्र को प्रस्तावित करती हैं। वे हमारे देखने के ढंग को बदल देती हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल का यह संग्रह इस अर्थ में, विगत वर्षों में आये अनेक कविता-संग्रहों से कुछ अलग है कि यह सिर्फ रेत और जल के बिम्बों और रूपकों को ही केन्द्र में रखकर रची गयी कविताओं का संग्रह है। याने यहाँ धुरी एक है लेकिन उसकी छवियाँ अनेक हैं। याने रेत के ही नहीं जल के भी मन में अनेक संस्मरण हैं। यहाँ रेत नदी का अनुवाद नहीं, उसका विस्तार है। कहा जा सकता है कि रेत की आकृतियाँ नदी के अन्तरलोक का बाह्यïीकरण है और रेत के भीतर बहती नदी, रेत के बाह्यïीकरण का आभ्यन्तर है। नदी का तट जो एक विशाल कैनवस में परिणत हो गया है उसमें कलाकार के हाथों की छुअन को श्रीप्रकाश शुक्ल अदीठ नहीं करते, हालाँकि वह यह भी मानते हैं कि कलाकार के स्पर्श से अनेक आकृतियाँ $खुद-ब-$खुद उभरती चली आती हैं और ये आकृतियाँ कहीं-न-कहीं हमारी विस्मृति के विरुद्ध इस कैनवस को विस्तार देती हैं, जिसमें अनगिनत संस्कृतियों के स्वर की अनुगूँज मौजूद है। इन कविताओं की लय रेत में बनती-मिटती, हवा और नदी की लय के साथ जुड़ती-मुड़ती लहरों जैसी ही है। इनमें आये देशज शब्द और मुहावरे नदी और रेत की आकृतियों को उसके भूगोल से कभी विलग नहीं होने देते; लेकिन इन कविताओं में न रेत ठहरी हुई है, न नदी। रेत में भी एक गति है और नदी में भी। गति ही उनकी पहचान को परिभाषित करती है। श्रीप्रकाश शुक्ल की इन कविताओं को पढ़ते हुए हम कई बार नदियों, समुद्रों और उनके रेतीले तटों पर बनी आकृतियों के पास जाते हैं और वापस कविता के पास आते हैं। आवाजाही की इस सतत प्रक्रिया के बीच ये कविताएँ स्मृतियों के साथ एक पुल बनाने का काम करती हैं। "
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